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'<poem>माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ क्या वह दे पाओगे तुम? ...' के साथ नया पन्ना बनाया
<poem>माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ
क्या वह दे पाओगे तुम?
मौन का नीरव प्रत्युत्तर,
अनछुये का भी अहसास
बड़ी देर तक चुप्पी को तुम
बाँध रखोगे अपने पास,
क्या स्वयं को ऐसी सीमा
में प्रिय, रख पाओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं...
तुम्हारे इक छोटे से दु:ख
से जो मेरा मन भर आये,
ढुलक पड़े आँखों से मोती
सीमायें तोड़े बह जाये,
थोड़ी देर उँगली पर अपने
मेरे अश्रु को रख लेना
बस थोड़े ही क्षण का आश्रय
क्या प्रिय दे पाओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं ..

कभी तुम्हारी आँखों में मैं
सपना बन कर न रह पाऊँ
बाहर के उस कोलाहल में
मैं धीरे से यदि खो जाऊँ
कभी किसी छोटी सी इच्छा
के पीछे जा कर छुप जाऊँ,
ऐसे में बिन आहट के क्या
समय लाँघ आओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं ..</poem>