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<poem>सरेह से अभी-अभी लौटे हैं
गोड़ में कादो माटी
अँचरा में लोर
दउरी में दू ठो रोटी-नून-मर्चा
जाने काहे आज मन नहीं किया
कुछो खाने का
न कौनो से बतियाने का
भोरे से मन बड़ा उदास है
मालिक रहते त
आज इ दिन देखना न पड़ता
आसरा छुट जाए
त केहू न अपन
दू बखत दू-दू गो रोटी
आ दू गो लुगा
इतनो कौनो से पार न लगा
अपन जिनगी लुटा दिए
मालिक चले गए
कूट पीस के बाल बच्चा पोसे
हाकिम बनाए
अब इ उजर साड़ी
आ भूईयाँ पर बैठ के खाने से
सबका इज्जत जाता है
अपन मड़इये ठीक
मालिक रहते त
का मजाल जे कौनो आँख तरेरता
भोरे से अनाज उसीनाता
आ दू सेर धान-कुटनी ले जाती
अब दू कौर के लिए
भोरे-भोरे
सरेहे-सरेहे...
आह !
अब न ऊ देवी है न कड़ाह!

(8. 3. 13)</poem>
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