728 bytes added,
09:58, 26 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=धीरेन्द्र अस्थाना
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>घर की पुरानी दीवारों सा,
अब ढहने लगा है आदमी !
बहुत ढो चुका रिश्तों का बोझ,
अब दबने लगा है आदमी !
जिन्दगी के हादसों में टूटकर
बिखरने लगा है आदमी !
अपनों में रहकर भी अजनबी
सा लगने लगा है आदमी !
घर की पुरानी दीवारों सा,
अब ढहने लगा है आदमी !
</poem>