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सिर / हरिऔध

40 bytes removed, 19:38, 18 मार्च 2014
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<poem>
क्या हुआ पा गये जगह ऊँची। 
जो समझ औ बिचार कर न चले।
 सिर! अगर तुम पड़े वु+चालों कुचालों में। तो हुआ ठीक जो गये वु+चले।कुचले।
जो कि ताबे बने रहे सब दिन।
 
वे सँभल लग गये दिखाने बल।
 
हाथ क्या, उँगलियाँ दबाती हैं।
 
सिर! मिला यह तुम्हें दबे का फल।
सोच कर उस की दसा जी हिल गया।
 
जो कि मुँह के बल गिर ऊँचे गये।
जब बुरे कूचे तुम्हें रुचते रहे।
सिर ! तभी तुम बेतरह कूँचे गये।
जब बुरे वू+चे तुम्हें रुचते रहे। सिर ! तभी तुम बेतरह वू+ँचे गये। पा जिन्हें धारती धरती उधारती ही रही। 
लोग जिनके अवतरे उबरे तरे।
 
सिर! गिरे तुम जो न उन के पाँव पर।
 तो बने नर-देह के क्या सिरधारे।सिरधरे।
है जिसे प्रभु की कला सब थल मिली।
 पत्तिायों पत्तियों में, पेड़ में, फल फूल में। 
ली नहीं जो धूल उनके पाँव की।
 
सिर! पड़े तो तुम बड़ी ही भूल में।
बात वह भूले न रुचनी चाहिए।
 
जो कि तुम को बेतरह नीचा करे।
 
सिर ! तुम्हीं सिरमौर के सिरमौर हो।
 औ तुम्हीं हो सिरधारों सिरधरों के सिरधारे।सिरधरे।
दे जनम निज गोद में पाला जिन्हें।
 
क्या पले थे वे कटाने के लिए।
 
खेद है सुख चाह बेदी पर खुले।
 
सिर! बहुत से बाल तूने बलि दिये।
बाल में सारे पु+लेलों फ़ुलेलों के भले। 
सब सराहे फूल चोटी में लसे।
 
सिर! सुबासित हो सकोगे किस तरह।
 
जब बुरी रुचि-वास से तुम हो बसे।
कब नहीं उस की चली, वु+ल कुल ब्योंत ही। 
सब दिनों जिस की बनी बाँदी रही।
 
माँग पूरी की गई है कब नहीं।
 सिर! तुमारी तुम्हारी कब नहीं चाँदी रही।
सिर! छिपाये छिप न असलियत सकी।
 
बज सके न सदा बनावट के डगे।
 
सब दिनों काले बने कब रह सके।
 
बाल उजले बार कितने ही रँगे।
छोड़ रंगीनी सुधार सादे बनो।
 
यह सुझा कर बीज हित का बो चले।
 
चोचले करते रहोगे कब तलक।
 सिर! तुमारे तुम्हारे बाल उजले हो चले।
</poem>
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