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जीभ / हरिऔध

75 bytes removed, 05:39, 19 मार्च 2014
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<poem>
कट गई, दब गई, गई वु+चली।कुचली।
कौन साँसत हुई नहीं तेरी।
 
जीभ तू सोच क्या मिला तुझ को।
 
दाँत के आस पास दे फेरी।
जब बुरे ढंग में गई ढल तू।
 
फल बुरा तब न किस तरह पाती।
 
बोलती ऐंठ ऐंठ कर जब थी।
 
जीभ तब ऐंठ क्यों न दी जाती।
जब लगी काट छाँट में वह थी।
 
तब न क्यों काट छाँट की जाती।
 
जब कतरब्योंत रुच गई उस को।
 
जीभ तब क्यों कतर न दी जाती।
बिख रहे जो कि घोलती रस में।
 
क्यों उसे रस चखा चखा पालें।
 
बात जिससे सदा रही कटती।
 
क्यों न उस जीभ को कटा डालें।
बात कड़वी, कड़ी, वु+ढंगी कुढंगी कह। 
जब रही बीज बैर का बोती।
 
तब लगी क्यों रही भले मुँह में।
 
था भला जीभ गिर गई होती।
सच, भली रुचि, सनेह, नरमी का।
 
नाम ही जब कि वह नहीं लेती।
 
तब सिवा बद-लगाम बनने के।
 
चाम की जीभ काम क्या देती।
क्या गरम दूधा दूध और दाँत करें। 
सब दिनों किस तरह बची रहती।
 जीभ वै+से कैसे जले कटे न भला। 
जब कि थी वह जली कटी कहती।
क्यों न तब तू निकाल ली जाती।
 
जब बनी आबरू रही खोती।
 
क्यों नहीं आग तब लगी तुझ में।
 
जीभ जब आग तू रही बोती।
क्या रही जानती मरम रस का।
 
जब कि रस ठीक ठीक रख न सकी।
 
तब किया क्या तमाम रस चख कर।
 
रामरस जीभ जब कि चख न सकी।
जीभ औरों की मिठाई के लिए।
 
राल भूले भी न बहनी चाहिए।
 
जब कि कड़वापन तुझे भाता नहीं।
 
तब न कड़वी बात कहनी चाहिए।
जब कि प्यारी बात का बरसा न रस।
 
तू बता तब क्या हुआ तेरे हिले।
 
तरबतर जब जीभ तू करती नहीं।
 
तो तरावट धूल में तेरी मिले।
पान को कोस लें मगर वह तो।
 
है बुरी बान के पड़ी पाले।
 
जब कही बात थी जलनवाली।
 
क्यों पड़े जीभ में न तब छाले।
बात तू ही बेठिकाने की करे।
 
किस तरह हम तब ठिकाने से रहें।
 
जीभ तूने बात जब बेजड़ कही।
 बात की जड़ तब तुझे वै+से कैसे कहें।
दाँत से बार बार छिद बिधा कर।
 
जीभ है फल बुरे बुरे चखती।
 
है मगर वह उसे दमक देती।
 
चाटती, पोंछती, बिमल रखती।
क्या भला तीखे रसों को तब चखा।
 
जब न उस की काहिली को खो सकी।
 
जाति को तीखी बनाने के लिए।
 
जीभ जब तीखी नहीं तू हो सकी।
क्या रहा सामने घड़ा रस का।
 
जब नहीं एक बूँद पाती तू।
 
पत गँवा लोप कर रसीलापन।
 
है अबस जीभ लपलपाती तू।
थी जहाँ सूख तू वहीं जाती।
 
पड़ बिपद में भली न उकताई।
 
प्यास के बढ़ गये बिकल हो कर।
 
किसलिए जीभ तू निकल आई।
किसलिए तब तू न सौ टुकड़े हुई।
 तब बिपद वै+से कैसे नहीं तुझ पर ढही। 
काट देने को कलेजा और का।
 
जीभ जब तलवार बनती तू रही।
जीभ तू थी लाल होती पान से।
 
पर न जाना तू किसी का काल थी।
 
धूल में तेरा ललाना तब मिले।
 
तू लहू से जब किसी के लाल थी।
रुच भले ही जाय खारापन तुझे।
 
पर खरी बातें भला किसने सहीं।
 
जीभ तुझ को चाहिए था सोचना।
 
एक खारापन खरापन है नहीं।
सब रसों में जब कि मीठा रस जँचा।
 और तू सब दिन अधिाक अधिक उस में सनी। 
जीभ तो है चूक तेरी कम नहीं।
 
जो न मीठा बोल कर मीठी बनी।
</poem>
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