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06:50, 2 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=गिरिराज किराडू
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
सात दिन में दूसरी बार एक शव के सम्मुख
ठीक उसी घोंसले के नीचे
यह हथेली में समा जाये जितना शव है
उड़ना सीखते हुए शव हुआ एक बच्चा
दोस्त के हाथों फोन पर अपमानित होने की खरोंच और
अपने किए में सब गुनाह ढूँढने की आदत से बेज़ार
मुझे नहीं दिखा वह
न उसे खाने में तल्लीन चींटियाँ
फिर से एक क्रूर अंतिम संस्कार करना है
[ तुम्हारे होने से मेरे संसार में मनुष्यो के परे भी सृष्टि है
कवि होने से परे भी कोई अज़ाब है ]
जब केवल उजाड़ था हमारे बीच उन दिनों भी हमने
एक पक्षी होने की कोशिश की, शवों के अभिभावक होने की कोशिश की –
यह सोचते हुए तुम्हें जाते हुए देखता हूँ एक दूसरे संसार में
दरअसल एक बरबाद बस में
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