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दातुन
कहाँ जानता था
पिता वृक्ष की बाहों में निश्चिन्त
झूलता मैं
कि किसी सुबह टहनियों सहित
खींच लिया जाऊंगा
फिर वस्त्र-विहीन कर
तेज चाकू से छील-काटकर
बना दिया जाऊंगा
छोटा सा दातुन
और बिकेगी बाजार में
मेरी हरी नाजुक देह
खरीदार सुबह-सबेरे
चबाकर मेरा सिर
बदल देंगे नरम कूंची में
साफ करेंगे गंदे दांत
बदबूदार मुंह में डालकर
दायें-बाएं, उपर-नीचे
लगातार रगड़ते हुए
रगड़ से टूटे कूंची के रेशे को
बेदर्दी से थूक देंगे दूर
इतने पर भी नही होगा मेरी यातना का अंत
चमकते ही दांत वे बीच से चीरकर मुझे
साफ करेंगे अपनी चटोरी जीभ
फिर फेंक देंगे धूल-मिटटी में
अपनी गंदगी के साथ
पैरों से कुचले जाने के लिए
आज पड़ा हुआ सड़क पर
घायल अधमरा मैं सिसक रहा हूँ
अपनी दशा पर याद आ रहे हैं पिता
क्या पिता को भी आती होगी
मेरी याद.
</poem>
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