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06:14, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विपिन चौधरी
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|संग्रह=
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<poem>
सब्ज़ी-बाज़ार के काँव-काँव समुद्र में
बैठी है एक बूढ़ी औरत
सब्जि़यों के खामोश द्वीपों से घिरी
भिण्डी क्या भाव
ढाई रूपये पाव
उसकी हरी अंगुलियों में छूता हूँ
झुर्रीदार ताज़गी
लौकी
ढाई रूपये पाव
नाखून नहीं गड़ाता
रक्त निकलने के भय से
मेथी
बाल सहलाता हूँ उसके
भर जाती है वह ममत्व से
पत्ता गोभी
कितनी पर्तों में
बन्द चेहरा उसका
बहुत महँगी है सब्ज़ी अम्माँ!
ले जा बेटा दो रूपये पाव
भिण्डी लौकी मेथी और पत्तागोभी से
भर देती वह थैला
डाल देती थोड़ा धनिया भी ऊपर से
लौटता हूँ घर हिसाब गुनगुनाता
बचाये पैसे कितने
थैले में बन्द अम्माँ मुस्कुरा रही है।
</poem>
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