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अपनी-अपनी जगह / विपिन चौधरी

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देर तक शुक्र मनाते
अपने आंगन में बेखौफ उतरे
अष्टावक्र प्रेम को निहारते संवारते
जीवन का आधा वक्त गुजरा
कई कोणों से सुशोभित प्रेम
अपने सीधे रूप में मेरे नजदीक क्योंकर आता
हर उस सीधेपन से एतराज रहा था मुझे
जो कहीं से भी मुड़ने से परहेजी था
प्रेम के इस सोलवें सावन पर
कई बार सात फेरे लेने का मन हुआ
पर ये सात फेरों वाला मामला तो
सीधेपन की ऊँची हद तक सीधा था
सो मैं रही अपनी कमान में महफूज
और मेरा अष्टावक्र प्रेम अपने आठ कोणों में विभाजित
</poem>
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