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कितने रंग / विपिन चौधरी

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<poem>
हादसों के ठीक मध्य से
गुज़रते हुए,
कभी,
बीहड़ बयाबान में
कोई भटका हुआ सपना तलाशना।
कभी,
अपनेपन को बीच में छोड़
किसी दूसरे के खोल में
अपने जैसा ही कुछ तलाशना।
बुद्ध गांधी के देश में
तलवारें सहेजने का उपक्रम करना।
खाम ख़याली के दौरों में रह-रह कर
अपनी उपस्थिति उकेरना।
जीवन जैसा ही कुछ
अर्धसत्य बुनना।
प्रेम और मौत जैसा ही
संपूर्ण सत्य को पहचानने की कोशिश करना।
संबंधों की मरुभूमि पर
देर तक कोहनी टिकाए रखना।
अकबकाए रखना सपनों की
धूप-छाँव में स्वयं को देर तक।
सपाट यथार्थ की घुमावदार
पुलिया से गुज़रते हुए,
कितने रंग-रूप देखे।
</poem>
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