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<poem>
तनक हरि चितवौ जी मोरी ओर।

हम चितवत तुम चितवत नाहीं
मन के बड़े कठोर।

मेरे आसा चितनि तुम्हरी
और न दूजी ठौर।

तुमसे हमकूं एक हो जी
हम-सी लाख करोर॥

कब की ठाड़ी अरज करत हूं
अरज करत भै भोर।

मीरा के प्रभु हरि अबिनासी
देस्यूं प्राण अकोर॥
</poem>
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