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07:20, 15 मई 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मीराबाई
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<poem>
तनक हरि चितवौ जी मोरी ओर।
हम चितवत तुम चितवत नाहीं
मन के बड़े कठोर।
मेरे आसा चितनि तुम्हरी
और न दूजी ठौर।
तुमसे हमकूं एक हो जी
हम-सी लाख करोर॥
कब की ठाड़ी अरज करत हूं
अरज करत भै भोर।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी
देस्यूं प्राण अकोर॥
</poem>