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10:35, 18 मई 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विद्यापति
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शिव को वर के रूप में देख कर माता को यह चिंता सता रही है कि ससुराल में पार्वती किसके साथ रहेगी –न सास है, न ससुर , कैसे उसका निर्वाह होगा ? सारा जप –तप उसका निरर्थक हो गया...यदि यही दिन देखना था तो ...देखें माँ का हाल ..
एत जप-तप हम की लागि कयलहु,
कथि लय कयल नित दान ।
हमर धिया के इहो वर होयताह ,
आब नहिं रहत परान ।
नहिं छनि हर कें माय-बाप ,
नहिं छनि सोदर भाय ।
मोर धिया जओं ससुर जयती ,
बइसती ककरा लग जाय ।
घास काटि लऔती बसहा च्रौरती ,
कुटती भांग –धथूर ।
एको पल गौरी बैसहु न पौती,
रहती ठाढि हजूर ।
भनहि विद्यापति सुनु हे मनाइनि,
दिढ़ करू अपन गेआन ।
तीन लोक केर एहो छथि ठाकुर
गौरा देवी जान ।
</poem>