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09:45, 25 मई 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पुष्पिता
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<poem>
शिशु को
अपने वक्ष से लगाये
याकि स्वयं उसके वक्ष से लगी हुई
वर्षों से बिछुड़ी
दुनिया के मायाजाल में भटकती
शिशु से पहले
बहुत कुछ या कि सब कुछ पाने की
अभिलाषा में
वह दौड़ती रही अब तक
और 'माँ' बनने से रही दूर
थक गई
तब 'माँ' बनी और जाना
बेकार हाँफती रही
तृष्णाओं की दौड़ में .
स्त्री का
वास्तविक हासिल
'माँ' बनना है
उसकी जायी सन्तान
उसे 'माँ' बनाती है
वह 'निज-स्त्रीत्व' में
महसूस करने लगती है
ममत्व की झील
और वात्सल्य का झरना
देखते-देखते
वह स्त्री से प्रकृति में
बदल जाती है
और समझ पाती है
माँ और मातृभूमि होने का
अलभ्य-सुख.
</poem>
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