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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>
उम्र भर रोया किए, ना-कामियाँ देखा किए
कैसी कैसी इश्क़ में रुस्वाईयाँ देखा किए!

अपनी मजबूरी, तिरी रानाईयाँ देखा किए
हम ज़मीं वाले फ़राज़-ए-आसमाँ देखा किए

एक दुनिया मुन्तज़िर थी इन्क़लाब-ए-देह्र की
एक हम ही थे तिरी अंगड़ाईयाँ देखा किए

अश्क-ए-ग़म टपका किए बेचारगी से और हम
दामन-ए-उम्मीद की नै-रंगियाँ देखा किए

ये नहीं देखा किसी ने रंज-ओ-ग़म है किस लिए
अहल-ए-दुनिया सिर्फ़ अन्दाज़-ए-फ़ुग़ाँ देखा किए

लोग हालत को हमारी देख कर हँसते रहे
और हम तेरी तरफ़ ऐ जान-ए-जाँ देखा!किए

मोजिज़ा है ये कि है दीवानगी हम क्या कहें!
वो नज़र आये वहीं पर हम जहाँ देखा किए

कोई दिन जाता है महफ़िल में बिखर जाऊँगा मैं
आप गर मेरी तरफ़ यूँ ही वहाँ देखा किए

देखने की चीज़ हैं अहल-ए-ख़िरद की काविशें
इश्क़ में ये ख़ुश-गुमाँ सूद-ओ-ज़ियाँ देखा किए!

शे’र में "सरवर" के हाल-ए-दर्द-ए-दिल था और लोग
बन्दिशें परखा किए, तर्ज़-ए-बयाँ देखा किए

</poem>
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