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13:44, 27 जुलाई 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'
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|संग्रह=
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<poem>
कबहुँ तौ किरन कौनिउ झोपड़ी मा झाँकै,
न कुछ अउर चाही अँधेरिया तौ आँकै।
बनै न घरैतिन बसै न परोसे
न सोचै कि दुनिया है वहिके भरोसे
तरस खाइ के हमकाँ कबहूँ न ताकै।
… … न कुछ अउर चाही अँधेरिया तौ आँकै।
करय झूठ वादा बरस बीत अनगिन
गरीबन काँ कबहूँ न पूछै यकौ छिन
न बिसुवास अब वहिके हाँ कै न ना कै।
… … न कुछ अउर चाही अँधेरिया तौ आँकै।
पलैं लाल झोपड़िउ मा गुदड़िउ मा रहि कै
अठारह महीना कै इतिहास कहि गै
यसस लाल तौ अपनी चुँदरी मा टाँकै।
… … न कुछ अउर चाही अँधेरिया तौ आँकै।
अमीरे गरीबे कै कस दुइ कहानी
बयार एक धरती गगन एक पानी
सरल एक रँग है धुआँ दोउ चिता कै।
… … न कुछ अउर चाही अँधेरिया तौ आँकै।
</poem>