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10:54, 28 अगस्त 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पीयूष दईया
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
मैं शर्मसार हूं कि सारे दांव जीत गया
यहां तक कि सिक्कों को मेरी जेब से
बाहर तक आने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ी
शुक्रगुज़ार हूं यह कहना न होगा
हार के आइने से बने मुझ पर
आप दिखते रहे
और जीत न सके
मुझ में भी।
पिता--
</poem>