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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रियदर्शन
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
बहुत पैसे कमाता हूं
लेकिन तब भी कुछ लोगों के आगे कम लगते हैं।
क्योंकि जो ऊपर हैं वे बहुत ऊपर हैं।
जिस रफ़्तार से मैं पैसे कमाता हूं
उस रफ्तार से मुकेश अंबानी जितने पैसे कमाने के लिए
मुझे 72,000 जन्म लेने पड़ेंगे।
या करीब इतने ही लोगों के जीवन से खेलना पड़ेगा।
इतनी उम्र या इतनी ताकत
मानव रहकर तो नहीं आ सकती
उसके लिए शायद राक्षस जैसा कुछ बनना पड़ेगा।
जबकि यह अभी ही लगता है,
पैसे भले कुछ बढ़ गए हों
मनुष्यता कुछ घट गई है
अपनी भी और अपने आसपास भी।
आवाज़ें सुनाई नहीं पड़तीं, दृश्य दिखाई नहीं पड़ते।
लोग बहुत दूर और पराए लगते हैं
उनका कोई सुख-दुख छूता-छीलता नहीं।
अपने सुख-दुख का भी पता कहां चलता है।
जब कभी आईना देखता हूं तो पाता हूं
कोई अजनबी खड़ा है सामने
पूछता हुआ, कहां खो गए तुम?
</poem>
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<poem>
बहुत पैसे कमाता हूं
लेकिन तब भी कुछ लोगों के आगे कम लगते हैं।
क्योंकि जो ऊपर हैं वे बहुत ऊपर हैं।
जिस रफ़्तार से मैं पैसे कमाता हूं
उस रफ्तार से मुकेश अंबानी जितने पैसे कमाने के लिए
मुझे 72,000 जन्म लेने पड़ेंगे।
या करीब इतने ही लोगों के जीवन से खेलना पड़ेगा।
इतनी उम्र या इतनी ताकत
मानव रहकर तो नहीं आ सकती
उसके लिए शायद राक्षस जैसा कुछ बनना पड़ेगा।
जबकि यह अभी ही लगता है,
पैसे भले कुछ बढ़ गए हों
मनुष्यता कुछ घट गई है
अपनी भी और अपने आसपास भी।
आवाज़ें सुनाई नहीं पड़तीं, दृश्य दिखाई नहीं पड़ते।
लोग बहुत दूर और पराए लगते हैं
उनका कोई सुख-दुख छूता-छीलता नहीं।
अपने सुख-दुख का भी पता कहां चलता है।
जब कभी आईना देखता हूं तो पाता हूं
कोई अजनबी खड़ा है सामने
पूछता हुआ, कहां खो गए तुम?
</poem>