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Kavita Kosh से
उठता-गिरता
उड़ता जाए
टुकड़ा काग़ज़ कागज़ का
कभी पेट की चोटों को
अंदर-अंदर
लुटता जाए
टुकड़ा काग़ज़ कागज़ का
कभी फ़सादों-बहसों मेंहै शब्द-शब्द है नाचाउलझादरके-दरके शीशे मेंचेहरा देखाबाँचा- बांचासमझा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा काग़ज़ कागज़ का
कभी कोयले-साधधका,
फिर राख बना, रोया
माटी में मिल गया
कि जैसे
माटी में सोया
चलता है हल
गुड़ता जाए
टुकड़ा काग़ज़ कागज़ का
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