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जल-विहारिणी / जयशंकर प्रसाद

95 bytes added, 11:14, 2 अप्रैल 2015
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चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा
खिल रही है हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा
सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है
सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है
रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो
षान्त शान्त है, कुछ भय नहीं है, कुछ समय तक मत टलो
अन्धकार घना भरा है लता और निकुंज में
चन्द्रिका उज्जवल बनाता है उन्हें सुख-पुंजमें
साथ में कुछ नील मेघों की घिरी-सी है घटा
नील नीरज इन्दु के आलोक में भी खिल रहे
विना बिना स्वाती-विन्दु विद्रुम सीप में मोती रहें
रूप-सागर-मध्य रेखा-वलित कम्बु कमाल है
कंज एक खिला हुआ है, युगल किन्तु मृणाल है
चारू-तारा-वलित अम्बर बन रहा अम्बर अहा
चन्द उसमें चमकता है, कुछ नही जाता कहा
कंज-कर की उँगलियाँ हैं सुन्दरी के तार में
सुन्दरी पर एक कर है और ही कुछ तार में
चन्द्रमा भी मुग्ध मुख-मण्डल निरखता ही रहा
कोकिला का कंठ कोमल राग में ही भर रहा
इन्दु सुन्दर व्योम-मध्य प्रसार कर किरणावली
क्षुद्र तरल तरंग को रजताभ करता है छली
प्रकृति अपने नेत्र-तारा से निरखती है छटा
घिर रही है घोर एक आनन्द-घन की-सी घटा
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