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सहयात्री / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
रस्ते के कंकड़-पत्थर, पग-पग की ठोकर,
तपता आतप ताप और ये काँटे .
चलना है स्वीकार इन्हें कर .
काँटों का विष-वमन, धूप की तपन,
राह दुर्गम है!
नीरस जीवन भार
नेह को दो ही बोल सहज कर जाते,
दो क्षण की मुस्कान सँजो लेते
पथ के ये विषमय काँटे,
जग की मौन उपेक्षा, उपालंभ, आरोपण,
तो फिर तोड़ न पाते
ओ सहयात्री, अपने नाते!
*
तेरी-मेरी एक कहानी,
जहाँ नहीं रुकने का कोई ठौर-ठिकाना,
उसी जगह से चरण चले थे.
पहला पग जब उठा
राह बोली थी- आगे, आगे देखो.
एक-एक कर कितनी दूरी इसी तरह मप गई.
पथ के साथी,
साथ छूटता पर पहचान शेष रह जाती,
मन में उमड़-घुमड़ जाता व्यवहार स्नेह का,
जीवन के आतप में जो छाया दे लेता .
*
कह लो कुछ, कुछ सुन लो,
सूनापन बस जाए दो ही क्षण को :
आगे कितनी दूर अकेले ही जाना है
अपने पथ पर तुमको-हमको!
ओ सहयात्री,
तेरी-मेरी एक कहानी.
जग की कसक भरी रेती पर
जहाँ नहीं रह जाती कोई शेष निशानी .
दो क्षण की पहचान भटकते से चरणों की.
काल फेर जाएगा चापों पर फिर पानी!
*
</poem>