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Kavita Kosh से
सुबह-शाम, दोपहर।
भरी दोपहरी में
जब सूरज आसमान मंेमें
ठीक सिर के ऊपर
टँगा होता
निकालती थी ज्वार रात में
हम दिखाते दिनभर धूप
माँ
कभी रात में
कभी अलसुबह
अलगनी के नीचे रखी घट्टि में
पीसती थी ज्वार
बनाती थी रोटी हम सबके लिए
कभी-कभी ले आती थी
दो-एक अलुरे फंुकड़े
जो सेंके जाते चूल्हे की आग में
और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे
अब हम पोस्त नहीं खरीद सकते
ज्वार भी महँगी है
माँ से मजूरी भी नहीं होती
मेरा बचपन भी चला गया
हल्लाड़ी घर के पीछे
बेकार पड़ी है।
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