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<poem>
कहीं तेरी परछाई खड़ी है, कहीं तेरी अँगड़ाई है
वैसे घर में कोई नहीं है कहने को तन्हाई है

होंठ जहाँ रख देते हो तुम पड़ जाता है दाग़ वहीं
होंठ नहीं हैं शमअ की लौ है उफ़ कितनी गरमाई है

ठंडे- ठंडे शीर से मेरा सारा आँगन भीग गया
या वो आया है छत पर या चाँद से बारिश आई है

कौन सा पत्ता किस डाली का है हमको मालूम नहीं
पतझड़ ने जंगल में अब के वो आँधी बरसाई है

टूटे दिल का बोझ उठना अपने बस की बात नहीं
हमने तो अपने जानिब से पूरे जान लगाई है
</poem>