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हँसी छाँव की / कुमार रवींद्र

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<poem>बड़े सबेरे
खिड़की पर आ पिडुकी बोली
कमरा जागा

दीप जला
तुलसीचौरे पर गूँजी पूजा
खेत-पार
फिर मुर्गा बोला -
कोई न दूजा

आँगन की मुँडेर पर उड़कर
बैठा कागा

पनघट पर आवाजाही
चर्चा सुख-दुख की
कोंपल ने चुप बात कही
खुशबू के रुख की

नई धूप ने बरगद से
सुहाग फिर माँगा

पीली सरसों
हरी घास पर
झुककर लेटी
गुलमोहर पर चढ़ी
रूपसी दिन की बेटी

हँसी छाँव की
सोने पर हो गया सुहागा
</poem>
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