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कमाल की औरतें १० / शैलजा पाठक

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<poem>ज़ख्म पर ओस लगाती
जले को फूंक उड़ाती
उबलते को चुटकी में पकड़ती
भीगे हाथ से सुख के चार कौर खिलाती
ये कैसे धान और खोइया सी झटक दी जाती
दो हिस्से में बांट दी गई औरतें
पनपती हैं
बंजर में रोपती प्रेम बढ़ाती हैं ƒघर-परिवार
नमक के सही अनुपात पर लानतें उठाती
सीख रही हैं, सीख जायेंगी पर रोती सी मुस्कराती

जरा-जरा सी गलतियों पर
पूरा नैहर झुका के सर खड़ा हो जाता
ससुराल के आंगन
ये कच्चे आम सी भिगो दी जाती हैं तेल में
ये बरसों जुबान पर चटक स्वाद छोड़ जाती हैं
पहली बार सरौता पहसुल पर ये अपने हाथ आजमाती हैं
ये अम्मा का गाना बुदबुदाती हैं
तुम्हारे सफेद कॉलर पर रगड़ती ब्रश ये
उ‹हें उजला और अपनी हथेली को लाल गुलाबी कर जाती हैं

गीले बाल, गीले माथे पर झट से चिपका लेती हैं
तुम्हारे नाम की बिंदी
अन्नपूर्णा सी रसोई को महका जाती हैं
ये टूटे चप्पल की सेफ्टीपिन
फटे पर कढ़ाई रफू-सी
उधड़े पर पैबंद सी नजर आती हैं
बीमार खटिया पर अपने चूक गयी ऊर्जा को
विटामिन की गोलियों में गटक जाती
ये अपराधिनी-सी लाल नीली पीली गोलियों से
संतुलित करती हैं बढ़ा हुआ रक्तचाप चक्कर कमजोरी

और तुम कहते ही रहते हो
कमाल की औरतें हैं
दवा इलाज पर न जाने कितने पैसे खर्च करवाती हैं।
</poem>
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