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सुनी हैं साँसें / अज्ञेय

14 bytes added, 09:18, 31 मार्च 2008
हम सदा जो नहीं सुनते <br>
साँस अपनी <br>
या कि अपने ह्रदय की गति-- गति— <br>
वह अकारण नहीं। <br>
इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना। <br>
है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम <br>
स्वयं अपने सामने आने नहीं देते। <br>
ओट थोड़ी बने रहना ही भला है-- है— <br>
देवता से और अपने-आप से। <br> <br>
औचक, बार-बार। <br>
देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा: <br>
पर जो दूसरा होता है--स्वयं मैं-- है—स्वयं मैं— <br>
सदा मैंने यही पाया है कि वह <br>
तुम हो: <br>
जो धड़कन ह्रदय की <br>
चेतना में फूट आई है हठीली <br>
नए अंकुर-सी-- सी— <br>
तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है। <br> <br>
यह लो <br>
अभी फिर सुनने लगा मैं <br>
साँस--अभी साँस—अभी कुछ गरमाने लगी-सी-- सी— <br>
ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा। <br>
लो <br>
पकड़ देता हूँ-- हूँ— <br>संभालो। <br><br> 
साँस <br>
स्पन्दन <br>
ध्यान <br>
और मेरा मुग्ध यह स्वीकार-- स्वीकार— <br>
सब <br>
(उस अजाने या अनाम देवता के बाद) <br>
तुम्हारे हैं।
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