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शरद के बादल / पंकज सिंह

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<poem>फिर सताने आ गए हैं 
शरद के बादल
 
धूप हल्की-सी बनी है स्वप्न
 
क्यों भला ये आ गए हैं
 
यों सताने
 
शरद के बादल
 
धैर्य धरती का परखने
 
और सूखी हड्डियों में कंप भरने
 
हवाओं की तेज़ छुरियाँ लपलपाते
 
आ गए हैं
 
शरद के बादल
 
(रचनाकाल : 1966)
</poem>
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