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{{KKRachna
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी
|संग्रह=नज़ीर ग्रन्थावली / नज़ीर अकबराबादी
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<poem>
दुनियां में बादशाह है सो है वह भी आदमी।
और मुफ़्लिसो गदा है सो है वह भी आदमी॥
जरदार बेनवा है, सो है वह भी आदमी।
नैंमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी॥
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी॥1॥
अब्दाल, कुतुबी, ग़ौस, वली आदमी हुए।
मुन्किर भी आदमी हुए और कुफ्र के भरे॥
क्या-क्या करिश्मे, कश्फो करामात के किए।
हत्ता कि अपने ज़ोरो रियाज़त के ज़ोर से॥
ख़ालिक़ से जा मिला है सो है वह भी आदमी॥2॥
मस्जिद भी आदमी ने बनाई है यां मियां।बनते हैं आदमी ही इमाम और मुफ़लिस-ओ-गदा खु़तबाख़्वां॥पढ़ते हैं आदमी ही कु़रान और नमाज़ यां।और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां॥जो उनको ताड़ता है सो है वो वह भी आदमीआदमी॥5॥
यां आदमी ही शादी है और आदमी ब्याह।
क़ाजी, वक़ील आदमी और आदमी गवाह॥
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़्वाह मख़्वाह।
दौड़े हैं आदमी ही तो मशालें जलाके राह॥
और ब्याहने चढ़ा है सो है वह भी आदमी॥9॥
एक ऐसे हैं कि जिनके बिछे हैं नए पलंग।
फूलों की सेज उनपे झमकती है ताज़ा रंग॥
सोते हैं लिपटे छाती से माशूक शोखो संग।
सौ-सौ तरह से ऐश के करते हैं रंग ढंग॥
और ख़ाक में पड़ा है सो है वह भी आदमी॥16॥