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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
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<poem>
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये ज़िंदगी इक चाय ताज़ा चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारी हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्ज़ियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो, चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
(मासिक वागर्थ-अक्टूबर 2009, त्रैमासिक लफ़्ज़ दिसम्बर-फरवरी 2011)
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ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये ज़िंदगी इक चाय ताज़ा चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारी हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्ज़ियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो, चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
(मासिक वागर्थ-अक्टूबर 2009, त्रैमासिक लफ़्ज़ दिसम्बर-फरवरी 2011)