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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
यूँ उट्ठी यादों की पलटन दिल में आज अचानक से
थम-खाली-दो करते फ़ौजी जैसे निकलें बैरक से
बातों-बातों में जब उसने हाथ छुआ मेरा, तो लगा
सौ का नोट निकल आया हो सिक्कों के संग गुल्लक से
तुझको क्या मालूम कि कितना शोर उठा है सीने में
दिल के दरवाज़े पर तेरी आँखों की इक दस्तक से
जो भी रस्ता पकड़ूँ वो तेरे कूचे जा मिलता है
लोहे का टुकड़ा कोई ज्यूँ खिंचता जाये चुम्बक से
होश नहीं है, नहीं ख़बर है, सुब्ह हुई कब शाम हुई
छम से आकर चले गए वो, हम बैठे हैं भौंचक से
धरती ऊपर, अम्बर नीचे, इश्क़ हुआ या आई कहर
सिहरन-सिहरन गर्मी में है, आँच मिले है ठंढक से
हाय करिश्मा चाहत का ये रोम-रोम पाज़ेब हुआ
थाप मिलाता लहू नसों में है धड़कन के कत्थक से
(गुफ़्तगू, जुलाई-सितम्बर 2015)
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यूँ उट्ठी यादों की पलटन दिल में आज अचानक से
थम-खाली-दो करते फ़ौजी जैसे निकलें बैरक से
बातों-बातों में जब उसने हाथ छुआ मेरा, तो लगा
सौ का नोट निकल आया हो सिक्कों के संग गुल्लक से
तुझको क्या मालूम कि कितना शोर उठा है सीने में
दिल के दरवाज़े पर तेरी आँखों की इक दस्तक से
जो भी रस्ता पकड़ूँ वो तेरे कूचे जा मिलता है
लोहे का टुकड़ा कोई ज्यूँ खिंचता जाये चुम्बक से
होश नहीं है, नहीं ख़बर है, सुब्ह हुई कब शाम हुई
छम से आकर चले गए वो, हम बैठे हैं भौंचक से
धरती ऊपर, अम्बर नीचे, इश्क़ हुआ या आई कहर
सिहरन-सिहरन गर्मी में है, आँच मिले है ठंढक से
हाय करिश्मा चाहत का ये रोम-रोम पाज़ेब हुआ
थाप मिलाता लहू नसों में है धड़कन के कत्थक से
(गुफ़्तगू, जुलाई-सितम्बर 2015)