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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
हासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से

रोज़ाना ही ख़ून-ख़राबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अख़बारों से

पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी ख़ुश्बू होती है इसमें पूछो तो कुम्हारों से

हर पूनम की रात बिचारा चाँद यही सोचे गुमसुम
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से

जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से

उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज़ नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फ़नकारों से

ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से






(गुफ़्तगू, जुलाई-सितम्बर 2012)
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