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Kavita Kosh से
मुझे मिली थी; <br>
कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई <br>
मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे-- धीरे— <br>
आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। <br> <br>
यहाँ चुक गई डगर: <br>
उलहना नहीं, मानता हूँ पर <br>
आज वहीं हूँ जहाँ कभी था-- था— <br>
एक कुहासे की देहरी पर: <br>
दीख रहा है <br>
पार <br>
धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, <br>
हठ धर, <br>
मन में भर <br>उछाह! <br> <br>
कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से <br>
कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, <br>
यह मैं भी: <br>
सभी नया है-- है— <br>
नाता ही एक नहीं बदला: <br>
वह एक खोजता राही <br>
जो पहुँचा कर चुक जाती? <br>
झूठा होगा वह तीर्थ <br>
सरोवर, नदी, महासागर को का जो किनारा-भर होता। <br>
जहाँ से अपने ही संकल्प <br>
न बन जाते ललकार <br>
क्या जाने वह डूबा, तैरा, <br>
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? <br>
:::::प्रतीक हैं? <br> <br>
यह भी हो सकता है <br>
कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: <br> <!---"बैठ रहे" ही ठीक है--->
जो आएँ उन्हें असीसे, <br>
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे <br>
जो पार स्वयं वह कर आया। <br> <br>
हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं-- नहीं— <br>
अब नहीं। <br>
मैं जिस देहरी पर हूँ <br>
हठ में कमी नहीं है, <br>
मेरा संकल्प भी डगमग, <br>
किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं-- मैं— <br>मुझे पूछना है अब--और अब—और खोजता हूँ उस को जिस से <br>::::यह पूछ सकूँ-- सकूँ— <br>
'वह दीख रहा है पार मुझे, <br>
पर बोलो, <br>
उस तक जाने का क्या है उपाय-- उपाय— <br>
है क्या उपाय? <br>
रूप: <br>
और कहाँ तक यही अनुक्रम! <br>
कितना और कुहासा <br>
कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर ? <br>
कितना हठ? <br>
कितने-कितने मन--कितना मन—कितना उछाह?' <br> <br>
है राह! <br>
तीर्थाटन को निकला हूँ <br>
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: <br>
गाता जाता हूँ-- हूँ— <br>
'है, पथ है: <br>
वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार-- बार— <br>
यों नहीं कि वह चुक जाता है: <br>
पर तीर्थ यही तो होते हैं-- हैं— <br>अनजाने--यद्यपि वांछित--सम्परायअनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: <br>
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' <br> <br>
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