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'''- अनुकम्पा -'''
करते ही याद मुरारी के,
वहाँ स्वयं विश्वकर्मा आये |
धन धाम सुदामा के घर हो,
हद आनन्द हो प्रभु फरमाये |

कृष्ण की कृपा से विश्वकर्मा बनाये महल,
सुन्दर चित्रादि देख देवता लुभाते थे |
कहीं बने झाड़ वृक्ष तोते व् कपोत बैठे,
कहीं मयूर चित्र देख मोर आजाते थे |
कहीं लाल मणि मुक्ता, हीरों की प्रकाश छटा,
बिना दीप रैन दिन उजियारा पाते थे |
चौपदार चाकर दासी दास काम करें,
केते ही खड़े बाहिर सुयश सुनाते थे |

सुनते ही हुकम कृष्ण जी का,
सब सुंदर साज सजा दीन्हें |
अद्भुत् सदन तैयार हुआ,
स्वर्ण के झार लगा दीन्हे |
क्षण एक ही में बन गया महल,
कछु देर न लगी बनाने में |
स्वर्ग तुल्य सब आनंद था,
जहाँ हीरे भरे खजाने में |
कछु देर बाद ब्राह्मण पहुँचे,
जहाँ नया मकान रहा |
झोंपड़ी थी वह भी न रही,
ब्राह्मणी का भी पता न रहा |

देख वहाँ के हाल को विप्र हुआ बेहाल |
नारी खोई पतिव्रता खोये बच्चे बाल ||
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