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|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्‍जी'
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<poem>
मेरे रोम-रोम में ऊषा छाई!

सकल विश्व देखा करता है
असीम अम्बर के मानस पर छाकर
रजनी की श्यामल चादर को दूर हटा
ऊषा ! कोमल किसलय पातों को
सागर सरिता की चंचल लहरों को
वायु को रेशा-रेशा उज्ज्वल कर
समूची जगती का कण-कण
करती है ज्योतिर्मय!

फिर क्योंकर न हो
मुझको भी यह विश्वास अरे
कि मेरे युग-युग से घन आच्छादित
गहन अन्तरतम को आलोकित कर
ऊषा प्रेम-प्रकाश फैलाएगी!
इतनी तो मुझ को भी
दी मधुर आशा दिखलाई!

मेरे रोम-रोम में ऊषा छाई!
</poem>