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{{KKRachna
|रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्जी'
|अनुवादक=
|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
ऊषे!
मेरा तो स्वप्न बना रखना!
रजनी की गोदी में सोये
न जाने कितनों के
तू नित्य नये
स्वप्निल हीरक प्रासादो को
क्षण भर में कर जीर्ण-शीर्ण
फिर हो जाती द्रुत-अन्तर्धान!
मेरे जीवन की अभिलाषाओं ने
चंचल गति सत्वर से सरिता बन
समय-सिन्धु में मिल
बन्द किया
कल-कल का आशायम गायन!
प्रताड़ित पीड़ित मानस ने मेरे
सब सुखमय स्वप्नों को त्याग अरे
बस तेरा ही सपना देखा है!
इस स्वप्न पर ही तो केवल
निर्धारित रे मेरा जीवन!
इस स्वप्न-सुमन की पाँखुरियों पर
झीनी सौरभ मधु से रस पर
मेरा मधुकर-सा यौवन निर्भर!
यदि यह भी गया बिखर
फिर कैसे री सम्भव?
अलि-यौवन का जीवित रहना!
ऊषे!
मेरा तो स्वप्न बना रखना!
प्रताड़ित पीड़ित मानस ने मेरे
सब सुखमय स्वप्नों को त्याग अरे
बस तेरा ही सपना देखा है!
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
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<poem>
ऊषे!
मेरा तो स्वप्न बना रखना!
रजनी की गोदी में सोये
न जाने कितनों के
तू नित्य नये
स्वप्निल हीरक प्रासादो को
क्षण भर में कर जीर्ण-शीर्ण
फिर हो जाती द्रुत-अन्तर्धान!
मेरे जीवन की अभिलाषाओं ने
चंचल गति सत्वर से सरिता बन
समय-सिन्धु में मिल
बन्द किया
कल-कल का आशायम गायन!
प्रताड़ित पीड़ित मानस ने मेरे
सब सुखमय स्वप्नों को त्याग अरे
बस तेरा ही सपना देखा है!
इस स्वप्न पर ही तो केवल
निर्धारित रे मेरा जीवन!
इस स्वप्न-सुमन की पाँखुरियों पर
झीनी सौरभ मधु से रस पर
मेरा मधुकर-सा यौवन निर्भर!
यदि यह भी गया बिखर
फिर कैसे री सम्भव?
अलि-यौवन का जीवित रहना!
ऊषे!
मेरा तो स्वप्न बना रखना!
प्रताड़ित पीड़ित मानस ने मेरे
सब सुखमय स्वप्नों को त्याग अरे
बस तेरा ही सपना देखा है!
</poem>