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"फिर आप मेरी शंका का समाधान कर ही नहीं सकते।" कहकर बिज्जी अपने स्थान पर बैठ गए. पूरी सभा मानो सन्निपात की चपेट में आ गई. आयोजकों ने धन्यवाद ज्ञापित कर सभा समाप्ति की घोषणा करने में ही भलाई समझी।
बिज्जी की शरारतों का यह अध्याय काफी सुदीर्घ है। वे अपने प्रौढ़ लेखकीय जीवन में इन शरारतों का भारी पछतावा भी करते रहे; लेकिन कोई उपाय न था, ये तो हो चुकी थीं और उनकी धवल-कीर्ति के अच्छे-बुरे पहलू की तरह स्वीकारी जा चुकी थीं। 'ऊषा' वस्तुतः काव्य-संकलन से पहले उनकी एक सुन्दर सहपाठिन का नाम था। बिज्जी उसके रूप-सौन्दर्य और गंभीर व्यक्तित्व से सम्मोहित थे। वहाँ उनकी किसी शरारती सूझ से काम चलने वाला नहीं था। बिज्जी ने काव्य-उपकरण का सहारा लिया और 'ऊषा' के श्लेष की आड़ लेकर अपनी सहपाठिन उषा के हृदय में अपनी जगह बनाने की भाव-चेष्टा करते हुए ये बावन कविताएँ रचीं। रचकर अपने पास रख लेने में तो प्रयोजन-सिद्धि होनी न थी, इसलिए इनका पुस्तकाकार प्रकाशन भी आवश्यक था। संक्षेप में, 'ऊषा' की कविताओं की यही असली कहानी है।