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हुलाकघर–३ / रमेश क्षितिज

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र खुसीका चौतारीहरू,
थिच्छ ढुंगाले सुनको आंैठी औ‌ठी
टुक्रा–टुक्रा पार्छ कागज,
अनि हिँड्छ अनिर्दिष्ट अल्छिँदै
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