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अन्तिम सुबह / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / ओक्ताविओ पाज़
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09:36, 27 नवम्बर 2016
समा जाते हैं इस कमरे के भीतर ही।
हम जो छोटे हैं
आखिर
आख़िर
हैं कितने बड़े !
बाहर
गुजरती
गुज़रती
है एक टैक्सी
प्रेतों से भरी।
अनिल जनविजय
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