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खण्ड-4 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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साथ-साथ तो रहे हमेशा लेकिन प्रीति नहीं थी
दुख का साथी क्या होता है, उसने है कब जाना
तुमने हर अवसर पर, केवल अपने को पहचाना ।’’पहचाना।’’
‘‘रुको, बहुत तुम बोल चुके, अब मैं भी क्या कुछ बोलूँ
आशाएँ, उम्मीद सभी कुछ; घन में चाँद अकेला
सन्नाटे का शोर लहर पर चढ़ कर बोल रहा था
सब कुछ डूब रहा था मेरा जो अनमोल रहा था ।’’था।’’
‘‘रुको, रुको, फिर से तो बोलो, क्या अनमोल तुम्हारा
द्वार-द्वार पर ढूँढ़ रहे थे जीवन का सुख सारा
किसी कूल के संग रहे, पर रिश्ता नहीं निभातीं
जब तुमने यह जाना, तो जा तट पर खड़े हुए हो
सच कहता हूँ, इसीलिए तुम इतने बड़े हुए हो ।’’हो।’’
‘‘सच है तट पर ही जीवन का आश्रय हो सकता है
घोर तमस में पूनम की रजनी की कोमल माया
पुरुष अलग, तो अलग प्रकृति है, नीरवता ही प्रहरी
कापालिक-सा काल घूमता, नींद मृत्यु-सी गहरी ।’’गहरी।’’
‘‘रुको, तुम्हें है घेर रहा अवसाद, विकल है चित्त
वे जो बांध रहे हैं तुमको, नहीं रहेंगे रूप
नये सत्य की अनुभूति से मन होगा निष्काम
नये भोर को ले उतरेगी उतर रही जो शाम ।’’शाम।’’
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