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15:03, 4 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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<poem>
मेरे भीतर फिर
लावे की
एक नदी बहती है
साँसों की
स्वर लहरी उसका
तेज-तपिश कहती है
उम्मीदों में
कहा-सुनी है
फिर भी चहल-पहल
चक्रवात के
बीच बनाये
हमने हवा महल
पहरे पर यह
धूप घरों की
टुकड़ों में रहती है
चिंताओं को
ओढ़-बिछाकर
भले गिने हों तारे
लेकिन
अँजुरी भर ले आये
दिन के हम उजियारे
रात बदल
जाती है दिन में
अनुकम्पा महती है
बाधाओं के
सभी रास्ते
खुद ही
बंद किये हैं
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते हम
अनगिन द्वन्द्व जिये हैं
खुशी चाह के
कदम सफलता
आप स्वयं गहती है
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