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{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
बहुत संकोच के साथ
मैंने पूछना चाहा था
इन जैसे तमाम अनाम उन बच्चों से
कि भूख लगने पर आखिर
वे करते क्या होंगे...

उनकी उम्र के बाकी बच्चे
नहीं जानते भूख लगना क्या होता है
वैसे ही जैसे वे नहीं जानते
क्या होता है जंगल में आग लगना
या अचानक से आंखों में नींद लग जाना

भूख के बहुत पहले
मिट जाती है
उनकी भूख
और नींद के बहुत पहले
उनकी नींद...

मैंने पूछना चाहा था
कि रुलाई आने पर
आखिर वे करते क्या होंगे
आंखों में लाते होंगे
कहां से आंसू

क्योंकि उनकी उम्र के
बाकी बच्चों की आंखों में
आंसू नहीं
उनकी माँ बसती हैं
और खुद ही
आंसू बन कर बहती हैं...

मैंने जानना चाहा था
कि शहर की उजली
चकाचौंध रातों में
अपनी आंखों में
वे नींद कहां से लाते होंगे

क्योंकि नींद तो अबतक
सड़कों से तो क्या
महलों से भी
रुखसत हो चुकी होंगी

और बच रही
थोड़ी बहुत देसी नींद और सपनों की
लग रही होंगी
विदेशों में भी ऊंची बोलियां...