भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ.<br>ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ..<br><br>
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय.<br>राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ..<br><br>
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर.<br>कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर..<br><br>
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर.<br>आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ..<br><br>
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.<br>खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद..<br><br>
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर.<br>परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर..<br><br>
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय.<br>तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय..<br><br>
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार.<br>दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार..<br><br>
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं.<br>ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं..<br><br>
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ.<br>कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ..<br><br>
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय.<br>कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय..<br><br>
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि.<br>हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि..<br><br>
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय.<br>औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय..<br><br>
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी.<br>चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी..<br><br>
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय.<br>बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय..<br><br>
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं.<br>मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं..<br><br>