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|रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी
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|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
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<poem>
विशुद्ध रासायनिक क्रिया है
दिल का टूटना
देखने में भले ही भौतिकी लगे,

इसमें भौतिक इतना ही होता है कि
किसी को देखने की लत से मजबूर नशेड़ी आँखें
चेहरे से हटकर दिल में फिट हो जाती हैं
फिर
दिल से दिखायी पड़ने लगता है सब कुछ
और पथरा जाती है
चेहरे की आँखें

जरा भी आकस्मिक घटना नहीं है
दिल टूटना
क़तरा-क़तरा करके ज़मींदोज़ होता है कोई ख़्वाब
रेशा-रेशा करके टूटता है एक धागा
लम्हा-लम्हा करके बिखरती है जिंदगी
उखडती है हर बार जड़ों के साथ थोड़ी थोड़ी मिट्टी
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

बुद्धिमानों की दुनिया में
किसी रंगकर्म सा मनोरंजक होता है
दिल का टूटना
आखिर किसी और का प्रेम श्रेष्ठ कैसे हो सकता है
हर मुमकिन कोशिश नीचा साबित करने की
चाहत, आसक्ति, मोह
अज्ञान ... और भी न जाने क्या क्या
हज़ारों बार अनेकों युक्तियों से तोड़ा जाता है इसे
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

महज़ एक कविता नहीं है
दिल का टूटना
कभी कभी तो लोग टूट जाया करते हैं
टूट जाती है सारी कायनात
हौसले टूट जाते हैं
उम्मीद ... और फिर भरोसा
डूबने से ठीक पहले खूब जोर से नाचती है
भँवर में फँसी कश्ती

टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल |

</poem>
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