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जो कहा नही गया / अज्ञेय

20 bytes added, 06:40, 31 जुलाई 2006
है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।
 
उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,
 
सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
 
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।
 
अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
 
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-
 
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
 
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
 
निर्विकार मरु तक को सींचा है
 
तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
 
तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
 
इसी अहंकार के मारे
 
अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
 
उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।
 
इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।
 
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
 
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
 
शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
 
वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।
 
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।
 
(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)
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