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मेरे मीत! / जया पाठक श्रीनिवासन

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<poem>
(१)
तेरे-मेरे बीच कि दूरी को
यूँ पाटता क्यों है
रहने दे न इसे
यूँ ही -
कि अगर किनारे मिल गए
तो हमारे इश्क़ की नदी
कहाँ जायेगी बता!


(२)
तू मुझसे सूरज का वादा करना
मैं तझे धरती की तहें दूँगी
एक दरख़्त की छाँव
और शाखों पर चहचहाते बसेरे
बस!
इतनी दुआ और मांग लेंगे आसमानों से


(३)
दिन भर जेठ का सूरज
चिलचिलाया था मेरी पीठ पर
रात ख्वाबों में तेरी छाँव घनेरी
तय ठहरी


(४)
देख!
तू अलग सी तस्वीर बना रह
मेरे रुबरु
तेरे शोख रंगों को मेरी सादगी की क़सम
आईने तो पूरी दुनिया दिखाती है
मेरे मीत!
</poem>
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