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<poem>
जाने दो
मैं भी पूछुंगा नहीं
कि तुम कौन से रंग,
कौन सी कविता,
कौन से स्वप्न जीते हो
वर्ना,
आदत से मजबूर तुम
बताने लगोगे
कि कैसे
सब रंग एकसाथ
उजाला बनते हैं
कैसे नंगे पैरों से नर्म
ललछांह धूप उतरती है
मुक्तिबोध की समाधि पर,
कैसे एक स्त्री की देह
बन जाती है
पूरी कायनात
और कैसे
उस देह की रेख से
नग्नता विलुप्त होती जाती है,
कैसे उस आईने पर
बुन लेते हो
ईमानदार रंगों की एक कविता
जिस पर
धर्म अपना प्रतिबिम्ब चिपकाये
बैठा था अबतक
तुम अपनी सादगी में
कहने लगोगे हज़ारों रंग-रेखाएं
और सब उनमें
खोजने लगेंगे
अपने लिए
संकरी सीढियां
</poem>
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