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कर्जे का बोझ / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
दिन पर दिन, बीते जा रहे हैं.
नजदीक आता जा रहा है,
वह दिन भी
जब हवायें मिटा देंगी
पावों के निशान, और
ले जायेंगी उड़ाकर
साथ अपने
मुठ्ठी भर अवशेष हमारे.

जाने किस पल के गर्भ में
दो कोशिकायें मिलीं.
दुनिया ने पाला और
ला बिठाया यहाँ.
एक कर्जा देकर के -
कुछ कर जाने के लिये.
ये मुठ्ठी भर अवशेष हमारे
इस कर्ज की भरपाई कर
न पायेंगे.

दो कोशिकाओं को मानव-तन में
बदलना आसान न था.
न ही आसान था कर्जा लाद कर
यहाँ ला बिठाना.
और न ही आसान है
यह कर्जा उतारना.

बस आसान रह गया है,
नियति बटोरना
योनि दर योनि
दर योनि.

</poem>
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