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धरती का श्रृंगार / राजीव रंजन

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पुश्पगंध पुष्पगंध सुवासित मकरंद से स्निग्ध धरा का तन-मन।
सरस वसुधा पर आज जाग उठा विटप-तृण में भी जीवन।।
कुसुम, कली, वल्लियाँ सजी कनक प्रतिमा सी इसकी काया।
प्राण बनी हर जन-जीवन का आज वह फैला अपनी माया।।
ऊशा ऊषा की लाली इसके रस-मग्न अधरों पर चमक रही।
हिम-सिक्त उज्जवल कुसुम सी काया आज दमक रही।।
सरिता-निर्झर का कल-कल बहता पानी, बढ़ी रवानी।
खग-वृंद भी चहक कर आज मंगलगान कर रहे।।
प्रकृति देख अपनी ही शोभा सुध-बुध अपना खो रही।
धरती के इस रूप से, आज स्वर्ग को भी ईर्श्या ईर्ष्या हो रही।।शस्यपूर्ण धानी परिधान में आज धरती का अद्भुत् श्रंगार।शृंगार।
आप्यायित कर रहा हर मन को निर्मल-निश्छल उसका प्यार।।
मंद-मंद मलायानिल का झोंका धरा का पट धीरे से खोल रहा।
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