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रुबाईयाँ / फ़िराक़ गोरखपुरी

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वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी<br>
कन्या है , सुहागन है जगत माता<br>
 
<poem>
हौदी पे खड़ी खिला रही है चारा
जोबन रस अंखड़ियों से छलका छलका
कोमल हाथों से है थपकती गरदन
किस प्यार से गाय देखती है मुखड़ा
 
 
वो गाय को दुहना वो सुहानी सुब्हें
गिरती हैं भरे थन से चमकती धारें
घुटनों पे वो कलस का खनकना कम-कम
या चुटकियों से फूट रही हैं किरनें
 
मथती है जमे दही को रस की पुतली
अलकों की लटें कुचों पे लटकी-लटकी
वो चलती हुई सुडौल बाहों की लचक
कोमल मुखड़े पर एक सुहानी सुरखी
 
आंखें हैं कि पैग़ाम मुहब्बत वाले
बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले
पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा
किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले
 
 
आँगन में सुहागनी नहा के बैठी हुई
रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली
जाड़े की सुहानी धूप खुले गेसू की
परछाईं चमकते सफ़हे* पर पड़ती हुई
 
मासूम जबीं और भवों के ख़ंजर
वो सुबह के तारे की तरह नर्म नज़र
वो चेहरा कि जैसे सांस लेती हो सहर
वो होंट तमानिअत** की आभा जिन पर
 
अमृत वो हलाहल को बना देती है
गुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है
 
प्यारी तेरी छवि दिल को लुभा लेती है
इस रूप से दुनिया की हरी खेती है
ठंडी है चाँद की किरन सी लेकिन
ये नर्म नज़र आग लगा देती है
 
 
सफ़हे – माथा, तमानिअत - संतोष
 
प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती है पलक
बैठी हुई है सिरहाने, माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक
 
चेहरे पे हवाइयाँ निगाहों में हिरास*
साजन के बिरह में रूप कितना है उदास
मुखड़े पे धुवां धुवां लताओं की तरह
बिखरे हुए बाल हैं कि सीता बनवास
 
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
कांधों पे, सरों पे, दोनों बाहों में कलस
मंद अंखड़ियों में, सीनों में भरपूर उमंग
 
ये ईख के खेतों की चमकती सतहें
मासूम कुंवारियों की दिलकश दौड़ें
खेतों के बीच में लगाती हैं छलांग
ईख उतनी उगेगी जितना ऊँचा कूदें