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अंततः मैं यही सविनय निवेदन करूँगा कि सहर्दय पाठक अपने साधूवादी स्वभाव से इसके सार-सार ग्रहण करे और इसकी त्रुटियाँ हमें बताने मे न हिचकिचाएं, ताकि हम इसके आगामी संस्करण मे उनका समुचित एवं उत्तम सुधार कर सकें।
सन्दीप कौशिक,
अनुक्रमणिका
 
अनु. क्र. संकलित सांगों की अनुक्रमणिका
*आमुख
*भूमिका
*जीवनी
*दृष्टिकोण
 
1 महात्मा बुद्ध
2 श्री गंगामाई
3 चमन ऋषि-सुकन्या
4 नारद–विश्वमोहिनी
5 कँवर निहालदे-नर सुल्तान
6 सारंगापरी
7 सत्यवान–सावित्री
8 राजा दुष्यंत–शकुन्तला
9 नल–दमयन्ती
10 कृष्ण जन्म
11 कृष्ण लीला
12 रुक्मणि मंगला
13 सरवर-नीर
14 चापसिंह-सोमवती
15 पिंगला–भरथरी
16 गोपीचन्द–भरथरी
17 बाबा जगन्नाथ- लोहारी जाटू धाम
18 बाबा छोटूनाथ- लोहारी जाटू धाम
19 मिरगिरी महाराज- सिकंदरपुरिया
20 काव्य-विविधा
भूमिका
सामान्य मनुष्य की तरह साहित्यकार भी सामाजिक प्राणी है। एक साहित्यकार और सामान्य व्यक्ति में अंतर सिर्फ इतना है कि सामान्य व्यक्ति अनुभव तो करता है, लेकिन उसमें अपने अनुभव को शब्दों में व्यक्त करने की कला नहीं होती है, पर साहित्यकार जो अनुभव करता है, उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। वास्तव में अभिव्यक्ति की यह कुशलता ही एक साहित्यकार को सामान्य व्यक्ति से अलग करती है।
एक सामान्य मनुष्य और लेखक में सिर्फ इतना फर्क होता है कि दोनों ही भरे हुए बादलों की तरह होते हैं। सामान्य मनुष्य बिना बरसे आगे चलता जाता है, पर लेखक खुद को हल्का कर देता है अर्थात् जो अनुभव करता है उसे शब्दों में व्यक्त करता है। जिस समाज और युग में वह जी रहा है, वह समाज और युग उसके व्यक्तित्व को एक विषेष सांचे में ढालता है। भारतीय संस्कृति में रचना और रचनाकार को पृथक नहीं देखा गया है। किसी भी रचना के अंतर्गत को समझने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम रचनाकार को अच्छी तरह जाने और उसके परिवेश से परिचित हो, तभी हम किसी कृति को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे। इसलिए 'पंडित राजेराम जी' के परिवेश को जानने लिए, मै उनके साहित्यिक अनुभव को दर्शाते हुए, उनके सांग 'सरवर-नीर' से एक कृति द्वारा सुपरिचित रचना पर प्रकाश डालना चाहूँगा, जो सरवर-नीर सांग मे निम्नलिखित प्रकार से रचित है।
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जवाब – सौदागर का अमली राणी से।
उडै गोड़ ब्राह्मण जात म्य, तनै राजेराम दिखाऊ ।।
(सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-20)
</poem>
साहित्यकार की सर्जन एवं उसके द्वारा रचित साहित्य के मूल व तथ्य को जानने, परखने और उसे गहराई से समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसके व्यक्तित्व से भली भांति परिचित हो, क्योंकि रचनाकार के व्यक्तित्व तथा रचना में परस्पर वैसा ही संबंध होता है जैसे चंद्र का अपनी रश्मियों से और पुण्य का अपने सौरम्भ से। कवि की श्रेष्ठता उसके व्यक्तित्व के सम्यक् विश्लेषण के बिना हम उनके सर्जक के प्रति पूर्ण न्याय नहीं कर सकते। इसलिए 'प. राजेराम भारद्वाज' की जीवन-गाथा को जो लोग जानते हैं, वे इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि साहित्य मार्ग पे चलने के लिए 14 वर्ष की आयु में घर छोड़कर जाने का दर्द क्या होता है। किसी भी रचनाकार का जन्म उसके क्षेत्र के लिए हर्ष का विषय होता है, क्यूकि कौन जानता है कि आज इस घर में जन्मा नवजात शिशु कल का होने वाला महान् साहित्यकार होगा। 'प. राजेराम भारद्वाज' का जन्म भी इसका अपवाद नहीं है- क्यूकि कोई नहीं जानता था कि जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे इस बालक राजेराम में यह प्रतिभा छिपी पड़ी है। उन्होंने अपनी इस साहित्यिक प्रतिभा को स्थापित करने के लिए जो गृह-त्याग का दर्द बचपन मे सहन किया, उसका बखान भी अपनी महानतम साहित्य प्रतिभा के साथ बखूबी किया है। उन्होंने इन तथ्यों का उत्कृष्ट उल्लेख अपने सांग 'सारंगापरी' एवं 'श्री गंगामाई' की रचनाओं मे इस प्रकार उद्घाटित किया है कि-
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatHaryanaviRachna}}<poem>
म्हारे घरक्या तै होई लड़ाई, चाल पडय़ा था एक दिन मै,
मांगेराम पाणछी कै म्हां, मिलग्या चौसठ के सन् मै,
उड़ै परमहंस जगन्नाथ महात्मा, आवै रोज बसेरे पै।।
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-18)
</poem>
इसी प्रकार अपनी जन्मजात प्रतिभा और माँ भवानी एवं गुरु के प्रति सच्ची श्रद्दा के साथ निरंतर अभ्यास के कारण वे सरल से सरल प्रसंग को भी इतने विरल रूप मे रचते हैं कि जिसकों सुलझाने के लिए बड़े से बड़े विद्वित मनुष्य भी संशय के संकट मे घिर जाये। जिस तरह एक अनपढ़ कबीर की पहेलियों का निचोड़ निकालना हर मनुष्य के समझ परे है, वैसे ही निरक्षरता के समान संगीताचार्य राजेराम के साहित्यिक ग्रंथियों को हल करने मे बड़े.बड़े विद्वान् एवं आचार्य भी अपनी असमर्थता का प्रकट करते है। इनकी इसी विशेषता को अंकित करते हुए उनकी एक रचना प्रस्तुत करते है, जिसको शास्त्रार्थ हेतु इस प्रकार रचा गया है कि-
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatHaryanaviRachna}}<poem>
कन्या बोली ऋषि मेरे तै, करवाले नै ब्याह,
पेट मै करूंगी डेरा, बणकै तेरी मां ।। टेक ।।
उसनै पद्वी कवि नाम की, जो भेद खोलै गा।।
(सांग:2 ‘गंगामाई’ अनु.-12)
</poem>
संक्षिप्त जीवन परिचय:-
पं. राजेराम जी का जन्म 01 जनवरी, सन 1950 ई0 (वार-रविवार, तिथि-त्रयोदशी, मास-पोष, शुक्ल पक्ष- बदी, विक्रम-संवत 2006) को गांव- लोहारी जाटू, जिला- भिवानी (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय 'गौड़ ब्राह्मण परिवार' मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. तेजराम शर्मा व माता का नाम ज्ञान देवी था, जो 30 एकड़ जमीन के मालिक थे और इसी भूमि पर कृषि करके अपने समस्त परिवार का भरण-पोषण करते थे। ये चार भाई थे- जिनमे बड़े का नाम औमप्रकाश, सत्यनारायण, राजेराम, कृष्ण जी। पं. राजेराम 21-22 वर्ष की उम्र में गांव खरक कलां.भिवानी में श्रीमती भतेरी देवी के साथ वैवाहिक बंधन मे बंधकर उन्होंने तीन लडको को जन्म दिया। फिर जब पंडित राजेराम कुछ पढने योग्य हुए तो कुछ समय स्कुल मे भेजकर बाद मे पशुचारण का कार्य सौंपा गया, परन्तु गीत-संगीत की लालसा उनमे बचपन से ही थी। इसलिए ग्वालों-पाळियों के साथ-साथ घूमते हुए, उनके मुखाश्रित से हुए गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाकर समय यापन करते-रहते थे। उसके बाद 10-12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव और आसपास की तो बात ही क्या, वे कोसों-मीलों दूर जाकर भी सांगी-भजनियों के कर्ण-रस द्वारा उनके कंठित भावों का आनंद को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांग के प्रति उनकी आसक्त भावना मे इस प्रकार वृद्धि हुई कि सांग देखने के लिए बिना बताएं और लड़-झगड़कर कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगे। इस प्रकार सांग से लालायित उनका कुछ जीवन अपने जन्मभूमि से अलगाव मे ही रहा। इन्ही दिनों फिर पंडित राजेराम जी के जीवन मे एक नए अध्याय के अंकुर अंकुरित हुए। सौभाग्य एवं सयोंगवश फिर किशोरायु राजेराम 14 वर्ष की आयु मे सन 1964 मे एक दिन सुबह-सुबह ही बिना बताये घर से सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद के परम शिष्य सुप्रसिद्ध सांगी पंडित मांगेराम का सांग सुनने के लिए गाँव-पांणछी, जिला-सोनीपत (हरियाणा) मे ही पहुँच गए, क्यूंकि बचपन से ही गाने-बजाने के शौक के कारण वे पंडित मांगेराम जी के सांगों को सुनने के बड़े ही दीवाने थे। इसलिए बचपन से ही गाने-बजाने चाव एवं लगाव के कारण उस समय के सुप्रसिद्द सांगी पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। फिर उस दिन पंडित मांगेराम जी ने सांग-मंचन करते हुए उनकी सरस्वतिमयी कंठ-माधुर्य ने उस किशोरायु राजेराम का ऐसा मन मोह लिया, कि वहीँ पे उन्होंने पंडित मांगेराम जी को अपना गुरु धारण करके उसी समय उनके सांग बेड़े मे शामिल हो गए। फिर पंडित राजेराम एक-दो दिन के बाद वहीँ से गुरु मांगेराम के साथ प्रथम बार उनके सांगी-बेड़े मे शामिल होकर गाँव खाण्डा-सेहरी मे सांग मंचन के लिए चले गए। उस दिन के बाद फिर गुरु मांगेराम ने अपने शिष्य बालक राजेराम की उम्र के लिहाज से उनकी जबरदस्त स्मरण शक्ति एंव सांगीत कला की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्होंने अपनी गुरु कृपा से बहुत जल्द ही इस साहित्यिक कला मे निपुण कर दिया। फिर अपने गुरु मांगेराम की इस बहुत ही सहजता एवं कोमल हर्दयता को देखकर अपनी गीत-संगीत की प्यास को बुझाने हेतु वे अपने गुरु मांगेराम जी के साथ ही रहने लगे। उसके बाद उन्होंने 6 महीने तक पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु मांगेराम के सत्संग से शिष्य राजेराम भारद्वाज अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। इस प्रकार पं0 राजेराम लगभग 6 महीने तक गुरु मांगेराम के संगीत-बेड़े में रहे। उसके बाद प्रथम बार इन्होंने भजन पार्टी सन् 1978 ई0 से 1980 तक लगभग 3 वर्ष रखी। फिर वे किसी कारणवश अपने भजन-पार्टी को छोड़ गए, परन्तु साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया।
*व्यक्तित्व*
पंडित राजेराम भारद्वाज एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके एक घनिष्ठ प्रेमी एवं कला के कायल डॉ॰ शिवचरण शर्मा (जो सर्वप्रथम प्रकाशित 'हरियाणा के कविसुर्य लख्मीचंद' पुस्तक के संपादक श्री के.सी. शर्मा- आई.ऐ.एस. ऑफिसर के छोटे सगे भाई है) जो गाँव लोहारी जाटू, भिवानी (हरियाणा) निवासी है, जिनको स्वयं सन 1991 मे हरियाणा लोक साहित्य पर पी.एच.डी. करने का गौरव प्राप्त हैं। उन्होंने पंडित राजेराम के संबंध मे कितना ही उचित कहा है कि जो पंडित राजेराम को एक साधारण कवि या सांगी समझते है, वे अल्पबुद्धि जीव है। वे केवल एक सशक्त कवि और सांगी ही नहीं, अपितु एक बहुत ही साधारण व्यक्तित्व के साथ-साथ एक अदभुत साहित्य एवं संगीत कला के, इस हरियाणवी लोक-साहित्य मे बहुत बड़े सहयोगी भी है, जो इस आधुनिक युग के नवकवियों के लिए एक जीवन्त मिशाल है। पंडित राजेराम गोरे रंग के साथ-साथ एक लम्बे-ऊँचे कद के धनी है और दूसरी तरफ इनकी वेशभूषा धोती-कुर्ता व साफा (तुर्हे वाला खंडका) प्रतिभा में चार चांद लगा देती है। इनका सादा जीवन व रहन-सहन एक अमूल्य आभूषण हैं, जो इतने प्रतिभावान होते हुए भी साधुवाद की तरह जरा-सा भी अहम भाव नहीं है। उनका यह साधुवाद चरित्र हम उनकी निम्नलिखित कुछ पंक्तियों मे देख सकते है।
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मानसिंह तै बुझ लिए, मै इन्सान किसा सूं,
लख्मीचंद तै बुझ लिए, मै चोर लुटेरा ना सूं,
राजेराम प्रेम का बासी, नहीं तनै देख्या भाला।।
(सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-34)
</poem>
साहित्यिक रूचि:-
वैसे तो पं. राजेराम की शिक्षा प्रारम्भिक स्तर तक ही हो पाई थी और प्रारम्भ में खेती-बाड़ी का काम किया करते थे तथा गांव लोहारी जाटू में अपने गुजारे लायक ही जमीन-जायदाद थी, परन्तु अनपढ़ता के दौर मे फंसे पंडित राजेराम शैक्षिक योग्यता पाने मे असमर्थ रहे, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी एक रचना की कुछ पंक्तियों मे इस क़द्र किया है- कि
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सुपनै जैसी माया तेरी, पागल दुनिया सारी सै,
निराकार साकार दिखै, सब मै तू गिरधारी सै,
राजेराम नहीं पढ़रया सै, किसी रागनी गा जाणै।।
(सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-22)
</poem>
पंडित राजेराम निरक्षरता के युग मे एक हाली-पाली रहते हुए भी उनमे प्रतिभा का गुण तो जन्मजात था ही और साथ-साथ उनकी सच्ची लगन एवं कठोर परिश्रम मे भी कोई कसर नहीं थी, जो किसी भी अच्छे कलाकार मे होना एक स्वाभाविक है। उनका लगभग पूरा जीवनक्रम उनकी जन्म एवं मातृभूमि लोहारी जाटू, जिला भिवानी के निकटवर्ती स्थानों हरियाणा मे व्याप्त रहा। जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी एक अदभुत कृति 'प्रकृति कहर, के रूप मे सन 1995 मे हरियाणा की प्राकृतिक आपदा के संबंध मे निम्नलिखित प्रकार किया है।
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*हरियाणे की सन 1995 की एक सच्ची दास्ताँ*
सारै चढ़या जल देख्या, सहम गया राजेराम,
या तेरी माया भगवान, जमाने भोई बड़ी बलवान ।।
(काव्य विविधा: अनु.-20) </poem>
परन्तु निरक्षरता के ज़माने मे शैक्षणिक योग्यता से अछूते रहे पंडित राजेराम को बचपन से ही गाने-बजाने का शोक था और उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार सुर्यकवि पंडित लखमीचंद प्रणाली के कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। उसके बाद फिर तो वे एक दिन सन् 1964 में प्रसिद्ध सांगी एवं गुरु पंडित मांगेराम जी के साहित्य-गायन कला का रसपान करने के लिए सीधे गुरु धाम गाँव पाणंछी-सोनीपत मे मात्र 14 वर्ष की अल्पआयु में बिना बताए घर से चले गए तथा उनके सांग में जा मिले, क्योकि वे पं0 मांगेराम के सांग सुनने के बड़े ही दिवाने थे। पं0 राजेराम जी को उनका सांग सुनते हुए उस दिन ऐसा रंग चढ़ा, कि उनको अपना गुरू ही धारण कर लिया। उन्होंने अपनी इस साहित्यिक रूचि का उल्लेख बारम्बार अपनी अनेकों रचनाओं मे किया है, जिनके कुछ उदाहारण निम्नलिखित पंक्तियों के रूप मे प्रस्तुत है-
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म्हारे घरक्यां तै होई लड़ाई, चाल्या उठ सबेरी मै,
सन् 64 मै मिल्या पांणछी, मांगेराम दुहफेरी मै,
इसी कविताई है ।।
(सांग:-18 ‘बाबा-छोटूनाथ’ अनु.-7)
</poem>
पं0 राजेराम लगभग 5-6 महीने गुरु मांगेराम के सांगीत बेड़े में रहे। उसके बाद उन्होंने गुरु मांगेराम जी से हरियाणवी लोक साहित्य एवं संगीत की शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद प्रथम बार अपनी भजन पार्टी सन् 1977-978 ई0 मे बनायीं, जो सन 1977-1978 ई. से 1980-1981 ई. तक लगभग 4-5 वर्ष रखी। फिर 4-5 साल के बाद पारिवारिक परिस्थितियों के बोझ कारण वे अपना साहित्यिक मंचन छोड़ गए, परन्तु इन्होने अपना साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया। उन्होंने अपने इस सांगीत बेड़े एवं भजन पार्टी के गठन का उल्लेख भी अपनी कुछ निम्नलिखित पंक्तियों मे इस प्रकार दर्शाया है- कि
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कर्जा उधार लिया, देणा मूल ब्याज करके,
देणै कै बख्त रोवै, पिछ्तावा नाजाज करके,
विरुद्ध पार्टी साज ओपरा, उडै़ गाया ना करूं ।।
(सांग:-15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-14)
</poem>
फिर सांग मंचन को छोड़ने के बाद वे दोबारा गृहस्थ जींवन मे व्यस्त हो गये और साथ-साथ अपनी साहित्यिक प्रतिभा को भी आगे बढाते चले गये, क्यूकि इनमे स्मरण शक्ति एवं सांगीत कला की पकड़ इतनी जबरदस्त है कि इनके स्वरचित साहित्य मे से किसी भी समय, कहीं से भी, कुछ भी और किसी तरह की रचना के बारे मुखाश्रित पूछ सकते है और वे उनका जवाब उसी समय बिना किसी बाधा के बड़ी आसानी से देते है। इसी आत्मीय बल एवं ज्ञान और स्मरण शक्ति के कारण ही ये गृहस्थ जीवन मे अपार जिम्मेदारियों के साथ व्यस्त होकर भी एक साधारण मनुष्य की जीवनयापन करते हुए अपने इस साहित्य को उच्चकोटि तक पहुंचाकर उन्होंने अपना साहित्यिक परिचय दिया।
मेरे विचार से प्रेरणा और उत्साह मनुष्य के हाथ में वे हथियार हैं जिनके सहारे मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सभी जानते है कि अधिकतर प्रेरणा रूपी ये हथियार बाहर से ही मिलते है। फिर कविराज पंडित राजेराम ने भी इन्ही हथियारों के साक्ष्य कुछ निम्नलिखित पंक्तियों मे इस प्रकार दिए है- कि
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राजेराम उम्र का बाला, मिलग्या गुरू पाणछी आला,
ताला दिया ज्ञान का खोल, किया मन का दूर अंधेरा सै,
राजेराम सिकंदरपुर मै, जाकै डेरा लाया ।।
(सांग:19 ‘मीरगिरी महाराज’ अनु.-1)
</poem>
ठीक उसी प्रकार कवि राजेराम जी भी भाग्यशाली थे क्योंकि उन्हें ये प्रेरणा रूपी हथियार अपने ही राज्य के उनके गुरु प्रसिद्ध सांगी कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी, गाँव-पांणछी, जिला सोनीपत वाले से मिले, जो गंधर्व अवतार सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद, गाँव जांटी, जिला सोनीपत वाले के शिष्य थे। अब मै यहाँ उनकी कुछ रचनाओं के अनुसार उनके इन प्रेरणा रूपी मोतियों की कुछ झलक प्रस्तुत कर रहा हूँ जो निम्नलिखित है।
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कहै राजेराम कंस तनै मारै, तू कन्या याणी होज्यागी,
भद्रा काली चण्डी दुर्गे, मात भवानी होज्यागी,
लख्मीचंद की प्रणाली का, इम्तिहान हो गया ।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-24)
</poem>
इसी कारण साहित्य लेखन व मंचन की कला पंडित राजेराम जी की प्रणाली में ही विद्यमान थी, बस जिसे पवित्र, प्रेरणादायक और प्रभावशाली शीतल हवा के एक झोंके की जरूरत थी और वो झोंका दिया इनके गुरु श्रेष्ठ प्रसिद्ध सांगी कवि शिरोमणि पंडित मांगेराम जी ने सन 1964 मे। इस प्रेरणा रूपी झोंके का उल्लेख उन्होंने अपनी बहुत सी रचनाओं मे उद्घाटित किया है जो निम्नलिखित रूप मे प्रस्तुत है।
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राजेराम झंग झोया, मांगेराम पाणछी टोह्या,
होया सांगी बड़ा मशहूर, मिल्या था 64 के सन् मै,
हांसी रोड़ पै गाम लुहारी, भिवानी शहर जिला ।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-11)
</poem>
अतः कहते है कि प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई रुचि अवश्य होती है जो कि उसे अपना समय व्यतीत करने में सहायता करती है। इसलिए साहित्य रचना और सांग मंचन पंडित राजेराम की मुख्य रुचि मे शुमार है। वैसे तो उनकी ये रूचि उनके स्वरचित सम्पूर्ण हरियाणवी लोक साहित्य/स्वरचित ग्रंथावली मे देख सकते है, उसके बावजूद भी हम उनकी साहित्य के रूप मे मुख्य रूचि की कुछ निम्नलिखित भिन्न-भिन्न रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ समक्ष रखना चाहेंगे, जो इस प्रकार है-
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इन्द्रगढ़ तै चलकै आया, शिखर दुहफेरी घाम,
घोड़ा बांध दिया बागां मै, करणे लग्या विश्राम,
राजेराम ब्राहम्ण कुल मै, बुझ लिए घर-डेरा ।।
(सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-29)
</poem>
गुरु महिमा:-
गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्यूंकि माता-पिता तो हमारे जन्म के साथी है, न की कर्म के साथी | वास्तव मे हमारे सही हिमाती तो सदगुरू ही है जो हमारी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करते है | वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। इसलिए उपरोक्त सभी ने गुरु की समता को इस प्रकार स्थापित किया है- कि
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दोहा:- गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
</poem>
अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
इस प्रकार हरियाणा के सभी सांगी, कवि, या रचनाकार गुरु-वन्दना से ही अपनी कला-कृतियों का प्रदर्शन प्रारंभ करते है | इसलिए पंडित राजेराम ने भी पदे-पदे गुरु को स्मरण किया हैA उन्होंने अपने लोक साहित्य मे गुरु भक्ति को इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ दर्शाया है कि जैसे नदियों मे गंगा, मंत्रो मे गायत्री मंत्र, पक्षियों मे बाज, पशुओं मे शेर, फूलों मे पुष्पराज गुलाब, फलों मे आम, आदि को श्रेष्ठ माना जाता हैA इसलिए उन्होंने गुरु की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए साक्ष्यार्थ सांगों की निम्नलिखित भिन्न-भिन्न पंक्तियों मे कितना सटीक प्रस्तुत किया है-
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ईब रट गोबिंद पार होज्यागी, लख्मीचंद की बण दासी,
मांगेराम गुरू का पाणछी, लिए धाम समझ कांशी,
होग्या दिल मै दूर जो मेरा अंधेरा सै ।।
(सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-10)
</poem>
शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ ‘अंधकार या मूल अज्ञान’ और ‘रू’ का अर्थ ‘उसका निरोधक’ बताया गया है, जिसका अर्थ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाने वाला ‘गुरु’ होता है। गुरु को भगवान से भी बढ़कर दर्जा दिया गया है अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे, क्यूंकि गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।
पंडित राजेराम अपने गुरु के प्रति बहुत ही श्रद्धान्वित है और उन्होंने अपने सामाजिक जीवन एवं साहित्यिक जीवन दोनों मे ही ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः’ के प्रमुख मंत्र को जगह-जगह प्रतिष्ठापित किया हैA वे अपने काव्य के अन्दर तो समय-समय पर अपने गुरु को श्रद्धा-सुमन समर्पित करने से नहीं चूकते हैA उन्होंने अपने अन्तर्मन की भावना को काव्य के अन्दर इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- कि
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राजेराम उम्र का बाला, मिलग्या गुरू पाणछी आला,
ताला दिया ज्ञान का खोल, किया मन का दूर अंधेरा सै,
लख्मीचंद की प्रणाली कै, गावण का सिर-सेहरा ।।
(काव्य विविधा: अनु.-11)
</poem>
पंडित राजेराम जी ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है अर्थात भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता, क्यूंकि गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
गुरु हमारा सदैव हितैषी व सच्चा मार्गदर्शी होता है। वह हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचता है और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। गुरु चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका एकमात्र ध्येय अपने शिक्षार्थी यानी शिष्य का कल्याण करने का होता है। गुरु हमें एक सच्चा इंसान यानी श्रेष्ठ इंसान बनाता है। हमारे अवगुणों को समाप्त करने की हरसंभव कोशिश करता है। इस सन्दर्भ में कविराज ने लाजवाब अन्दाज में कहा है:
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatHaryanaviRachna}}<poem>
राजेराम फंसी माया मै, दुनिया पागल होरी सै,
धनमाया संतान-स्त्री, माणस की कमजोरी सै,
कहै राजेराम भूल मै बैठ्या, दुनिया चाँद पै जा ली ।।
(सांग:8 ‘राजा दुष्यंत-शकुन्तला’ अनु.-19)
</poem>
इस प्रकार कविराज पंडित राजेराम ने भी अपने गुरु को उस ईश्वर का अंश मानकर गुरु मांगेराम जी की स्मृति मे बारम्बार श्रद्धा सुमन समर्पित किये है। उनके साक्ष्यार्थ सांगों की कुछ मुख्य पंक्तिया निम्नलिखित मे प्रस्ततु है-
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लखमीचंद तेरा नाम रटै, तनै तै मांगेराम रटै, तमाम रटै दुनियादारी,
दूर कर दिल का अंधेरा, सभा मै मान राख मेरा, तेरा रहैगा पूजारी,
गावै तत्काली ।।
(सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-10)
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सवांद योजना:-
नोट:- सज्जनों! इस सवांद-योजना की 4 कली की रचना मे कविराज प. राजेराम ने अपनी पहली कली मे 15 फूल लगाए है और शेष 3 कलियों मे 12-12 फूल लगाए है। इस सवांद-योजना मे कवि ने उस अवसर को देखते हुए एक बहुत ही अदभुत तर्ज के साथ एक अदभुत रचना के सहज भाव को प्रदर्शित किया है तथा ऐसी सवांदयोजी रचनाये हमको कभी-कभी, कही-कही और शायद बहुत ही कम देखने को मिलती है।
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भरथरी- पड़ी फिक्र मै किस ढाला, बूझै भरतार तेरा सै ।। टेक ।।
राजा के महला की पटराणी, फिर भी दुखी बिना एक संतान है ।।
(सांग:18 ‘बाबा छोटूनाथ’ अनु.-9)
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शब्दावली एवं भाषा ज्ञान:-
पंडित राजेराम एक निरक्षर के समान है और उनकी प्रचलित भाषा राष्ट्रीय हिन्दी व हरियाणवी सामान्य लोक-भाषा एव खड़ी बोली ही रही है, फिर भी उन्होंने अन्य भाषओं और शब्दों का श्रवण पूरी लगन के साथ किया है | अतः उनके काव्य मे अन्य लोक-प्रचलित भाषायी शब्दों का बाहुल्य मिलता है | पंडित राजेराम को अपनी बोली एवं भाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओँ के साथ-साथ, जैसे- उर्दू, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि से कितना प्यार था और उसमे कितनी महारत हासिल की हुई है, इस साक्ष्य के लिए “चापसिंह-सोमवती” की निम्नलिखित बहरे-तबील रचना पर एक नजर डालिए-
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बादशाह आलम, जहांपना मुगलेआज़म, मुजरा करूंगी सलावालेकम,
मेरी दुहाई, सुणो पनाह इलाही, नृत करने आई, मै चाहती हुकम ।। टेक ।।
दया-धर्म और न्याय नीति पै, राजेराम रहै चलता ।।
(सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-1)
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पंडित राजेराम जी ने बहुत कम पढ़े-लिखे होते हुए भी अपने साहित्यिक जीवन में सांस्कृतिक, धार्मिक, गुरु भक्ति, घर-गृहस्थ उपदेशक भजन, ब्रह्मज्ञान, साध-संगत, श्रंगार व रस प्रधान, अलंकृत, छन्दयुक्त व सौन्दर्य से ओतप्रोत तथा 36 रागों सहित कुछ संगीतमय रचनाये भी की। उनका कहना है कि जीवन स्वयं एक कहानी है और हर घटना व बात में एक कहानी छिपी रहती है। सिर्फ आवश्यकता है तो अपनी बुद्धि से उसे खोजने व शब्दों में बांधने की। अतः उनका मानना है कि साहित्य लेखन और गायन कोई आसान कार्य नहीं है। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार की अनेको रचनाये लिखी।
उन्होंने अपनी स्मरण शक्ति व आत्मज्ञान के बल पर इस साहित्य संग्रह के संकलित 16 सांगो व 3 संतवाणीयों मे ब्रह्मज्ञान, गंधर्व नीति, ब्राह्मण नीति, साहित्यिक नीति, राजनीति, कूटनीति सहित लगभग 600 से ऊपर रचनाये की जो अपने आप में एक मिशाल है और यह साहित्य संग्रह उन्हें हरियाणवी साहित्य जगत के कवियों मे सम्मान दिलाने के लिए काफी है। इस प्रकार उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में अनेकों सांगो व संतवाणीयों द्वारा 600 से अधिक रचनाये लिखकर हरियाणवी साहित्य जगत में वे अपनी एक पहचान बनाने की क्षमता रखते है, जिनका वर्गीकरण इस प्रकार है- अ.क्र. पौराणिक/ ऐतिहासिक धार्मिक/ आध्यात्मिक सामाजिक/ समस्यामूलक राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना1 गंगामाई 11. नारद-विषयमोहनी 16. सारंगापरी 19. महात्मा बुद्ध 2 चमन ऋषि-सुकन्या 12. गोपीचन्द-भरथरी 17. चापसिंह-सोमवती 3 सत्यवान-सावित्री 13. बाबा जगन्नाथ-संतवाणी 18. पिंगला-भरथरी 4 राजा दुष्यंत-शकुन्तला 14. बाबा छोटूनाथ-संतवाणी 5 नल-दमयन्ती 15. मीरगिरी महाराज-संतवाणी 6 कृष्ण जन्म 7 कृष्ण लीला 8 रुक्मणि मंगला 9 सरवर-नीर 10 निहालदे-सुल्तान
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