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Kavita Kosh से
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने जिसने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
उस सत्य के आघात से
हैं झनझना उठ्ती उठती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
इस दंश क के दुख भूल कर
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
वज्रांग पाण्डव भीम क का मन हो चुका परिशान्त था।
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,
और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
द्रोण-सुत के सीस शीश की मणि छीन कर
हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
पाँच नन्हें बालकों के मूल्य-सी।